hindu marriage act

Hindu Marriage Act : जानिये हिंदू विवाह नियमों के बारे में

विवाह एक सार्वभौमिक संस्था है, वो विश्व के प्रत्येक भाग में भिन्न-भिन्न रुपो में पायी जाती है। विवाह के माध्यम से समाज में परिवार निर्माण करने एवं व्यक्ति को समाज में एक विशिष्ट प्रस्थिति की प्राप्ति हेतु विवाह एक आधारभूत इकाई माना गया है। विश्व के प्रत्येक भाग में में चाहे वह आधुनिक हो या प्राचीन, शहरी हो या ग्रामीण, सभ्य हो या जनजातीय विवाह विभिन्न रुपों में पाया जाता है। 1955 में हिन्दू विवाह को नियंत्रित करने वाले कानूनी को औपचारिक रुप प्रदान किया गया। हिन्दू विवाह, वैवाहिक अधिकारी की बहाली, न्यायिक अलगाव विवाह रद्‌द करना, तलाक, विवाह प्रयोज्यता, रखरखाव,संरक्षण एवं नियन्त्रित करने वाले कानून हिंदू विवाह अधिनियम 1955 ( Hindu Marriage Act ) में शामिल है। जिसे विधायिका द्वारा पारित किया गया है।

हिंदू विवाह अधिनियम की संरचना( Structure of Hindu Marriage Act ):- 

हिन्दू उत्तराधिकार प्राशिनियम, 1956. हिदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956 और हिन्दू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम ,1956 सभी को हिन्दू कोड बिल ( Hindu Code Bill ) के हिस्से के रुप मे इस समय अधिनियमित किया गया था। वर एवं वधू के कानू‌नी अधिकारों की रक्षा के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम ( Hindu marriage act 1955) पारित किया गया था।

1955 का यह अधिनियम छह अध्याय है, जिसमें कुल 29 धाराएँ है, जो नीचे दिये गये है:-

1- अध्याय1- प्रारंभिक 

2. अध्याय 2 – हिन्दू विवाह

3. अध्याय 3 – वैवाहिक अधिकारी की पुनर्स्थापना और न्यायिक प्प्रयक्करण

4- अध्याय 4- विवाह की अमान्यता और तलाक

5. अध्याय 5- अधिकार क्षेत्र (

6. अध्याय 6- – बचत और निरसन

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 का उद्देश्य( Objective of Hindu Marriage Act 1955 ):- 

इस अधिनियम का मुख्य लक्ष्य हिंदुओं के बीच विवाह को नियंत्रित करने वाले कानून को अद्यतन और संहिताबद्ध करना था।

इसमें तलाक और अलगाव शामिल था, जो दोनों पहले से ही शास्त्री कानून (पुराने हिंदू कानून) के अंतर्गत आते हैं।

इसके अलावा शास्त्री कानून को संशोधित और संहिताबद्ध किया गया।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की आवश्यक विशेषताएं( Essential Features of Hindu Marriage Act 1955 ):-

द्विविवाह पर प्रतिबंध (ban on bigamy): – 

कानून एक व्यक्ति को एक ही समय में कई पत्नियाँ रखने से रोकता है।

अधिनियम की धारा 5 में निर्दिष्ट किया गया है कि एक ही समय में दो जीवित पत्नियाँ रखना अवैध है, जिसे द्विविवाह कहा जाता है।

इसका तात्पर्य है कि कोई व्यक्ति अपने जीवनसाथी को तलाक दिए बिना किसी और से विवाह नहीं कर सकता (तलाक)। 

विवाह हेतु उचित आयु ( appropriate age for marriage):- 

विवाह करने की समय-सीमा कानून द्वारा निर्धारित की जाती है।

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 (iii) के अनुसार, विवाह के समय दूल्हे की आयु कम से कम 21 वर्ष और दुल्हन की आयु कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए।

यदि विवाह संपन्न नहीं होता है, तो यह अमान्य हो जाता है और इसका कोई कानूनी आधार नहीं होता है।

1955 का अधिनियम वैवाहिक रक्षक के रूप में( Act of 1955 as matrimonial protector ): –

वैवाहिक अधिकारों की बहाली 1955 अधिनियम की धारा 9 में प्रदान की गई है। वैवाहिक अधिकारों की बहाली का मतलब एक साथ रहने का अधिकार है।

वैवाहिक अधिकारों को वैवाहिक बंधन से प्राप्त अधिकारों के रूप में परिभाषित किया जाता है। 

मानसिक स्थिति पर विशेष ध्यान: –

यदि कोई व्यक्ति विवाह के समय मानसिक रूप से अस्वस्थ था, तो उसका विवाह अमान्य हो जाएगा।

विवाह करने से पहले व्यक्ति को कानूनी रूप से बाध्यकारी सहमति भी देनी होगी। 

विवाह में शामिल विभिन्न प्रकार के समारोहों का महत्व( Importance of different types of ceremonies involved in marriage ):- 

कानून कहता है कि अगर दो लोग पारंपरिक रीति-रिवाजों और अधिकारों का उपयोग करके विवाह करते हैं, तो उनका विवाह वैध है। पिता को विवाह के बाद पैदा होने वाले किसी भी बच्चे की देखभाल और सुरक्षा करनी चाहिए क्योंकि वे कानूनी रूप से अस्तित्व के हकदार हैं।

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 द्वारा भारतीय समाज में ले गए परिवर्तन:- 

ब्रिटिश काल में जो विवाह का दृष्टिकोण अपनाया जाता है उसमें हिंदू मैरिज एक्ट ( Hindu Marriage Act ) के माध्यम से परिवर्तन लाए गए हैं।

इस अधिनियम के तहत पहली बार हिंदुओं में एक विवाह प्रथा का प्रचलन हुआ है।

भारतीय दंड संहिता, 1860( Indian Penal Code, 1860 ) में वर्तमान में द्विविवाह के लिए दंड का प्रावधान है। 1955 के अधिनियम की धारा 5 और 17 के प्रावधान दर्शाते हैं कि वैध विवाह के लिए नियमों और पूर्वापेक्षाओं को कितना सरल बनाया गया है।

यद्यपि प्राचीन हिंदू कानून में विवाह के लिए कोई आयु सीमा निर्दिष्ट नहीं थी, लेकिन अब यह आवश्यक है कि दूल्हा और दुल्हन दोनों 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर लें। (धारा 5)

पक्षकारों के वैवाहिक अधिकारों की पुनर्प्राप्ति के लिए प्रावधान (धारा 9)।

पति-पत्नी के भरण- पोषण तथा न्यायालयीन लागत के लिए प्रावधान ( धारा 24 )।

कानूनी प्रक्रिया लंबित रहने के दौरान तथा निर्णय होने के बाद भी छोटे बच्चों की देखभाल, सहायता और निर्देश ( धारा 26 )

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की प्रयोज्यता ( Applicability of Hindu Marriage Act 1955 )

धर्म से हिन्दू 

धर्म के अनुसार हिन्दू निम्नलिखित को दर्शाते हैं: 

  • वे लोग जो बौद्ध धर्म, यहूदी धर्म, हिंदू धर्म या जैन धर्म के मूल धर्मों का पालन करते हैं।
  • कोई भी व्यक्ति जो धर्म से हिंदू, जैन, बौद्ध या सिख है, हिंदू है यदि:
  • वह इनमें से किसी भी धर्म का पालन, प्रचार या अनुसरण करता है; और
  • वह हिन्दू ही बना रहता है, भले ही वह इनमें से किसी भी धर्म का पालन, प्रचार या पालन न करता हो। 

जन्म से हिन्दू

  • समकालीन हिंदू कानून के तहत कोई व्यक्ति जन्म से हिंदू होगा यदि:
  • उनका पालन-पोषण उनके माता-पिता में से एक ने हिंदू रूप में किया, जो हिंदू या मुस्लिम थे।
  • उनके माता-पिता दोनों हिंदू हैं।
  • चाहे बच्चा वैध हो या अप्राकृतिक, वे हिंदू हैं।
  • यदि बच्चे के जन्म के बाद माता-पिता दोनों या उनमें से कोई एक किसी अन्य धर्म में परिवर्तित हो जाता है, तो बच्चा तब तक हिंदू ही रहेगा, जब तक कि माता-पिता अपने पैतृक अधिकारों का प्रयोग करने का निर्णय नहीं लेते और बच्चे को भी नए धर्म में परिवर्तित नहीं कर देते। 

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत विवाह की अमान्यता( Invalidity of marriage under Hindu Marriage Act, 1955 )

किसी भी विवाह निम्नलिखित कारणों  से अमान्य होता है

  • नपुंसकता के कारण संभोग में असफलता, जो पूर्ण या आंशिक हो सकती है (उदाहरण के लिए, नपुंसकता की स्थिति); 
  • धारा 5 में निर्दिष्ट वैध सहमति मानसिक बीमारी की स्थिति का उल्लंघन; या
  • विवाह के समय प्रतिवादी का याचिकाकर्ता के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से गर्भवती होना। 

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत वैध विवाह की अनिवार्यताएं

  • पक्षों को निषिद्ध संबंधों की श्रेणी में नहीं आना चाहिए।
  • विवाह में शामिल पक्षों को मानसिक विकृति, मानसिक विकार या पागलपन से ग्रस्त नहीं होना चाहिए।
  • विवाह एकपत्नीवत् होना चाहिए।
  • विवाह परम्परागत रीति-रिवाजों और समारोहों के अनुसार सम्पन्न होना चाहिए।
  • विवाह के दोनों पक्ष हिंदू होने चाहिए।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत तलाक ( Divorce under Hindu Marriage Act 1955 )

प्रारंभिक वैदिक हिंदू सभ्यता(Vedic Hindu civilization) ने विवाह को दो लोगों के बीच एक बाध्यकारी समझौते के बजाय एक अनुष्ठान के रूप में देखा। मिलन को बहुत पवित्र माना जाता था, जैसे कि किसी प्रकार की दिव्य उत्पत्ति हो, और पूर्वनिर्धारित हो।

इसलिए, प्राचीन हिंदू कानून(ancient hindu law) के तहत विवाह में भागीदारों के तलाक या अलगाव की अनुमति नहीं थी।

परंतु आज दुर्भाग्य से, बहुत से विवाह तलाक में समाप्त हो जाते है।

तलाक का आधार 

इस अधिनियम की धारा-13 के तहत विवाह विच्छेद के निम्नलिखित आधार हो सकते हैं:

व्यभिचार (Adultry)– यदि पति या पत्नी में से कोई भी किसी अन्य व्यक्ति से विवाहेतर संबंध स्थापित करता है तो इसे विवाह विच्छेद का आधार माना जा सकता है।

क्रूरता (Cruelty)– पति या पत्नी को उसके साथी द्वारा शारीरिक, यौनिक या मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है तो क्रूरता के तहत इसे विवाह विच्छेद का आधार माना जा सकता है।

परित्याग (Desertion)– यदि पति या पत्नी में से किसी ने अपने साथी को छोड़ दिया हो तथा विवाह विच्छेद की अर्जी दाखिल करने से पहले वे लगातार दो वर्षों से अलग रह रहे हों।

धर्मांतरण (Proselytisze)– यदि पति पत्नी में से किसी एक ने कोई अन्य धर्म स्वीकार कर लिया हो।

मानसिक विकार(Unsound Mind)– पति या पत्नी में से कोई भी असाध्य मानसिक स्थिति तथा पागलपन से ग्रस्त हो और उनका एक-दूसरे के साथ रहना असंभव हो।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9

जब पति या पत्नी में से कोई एक, बिना किसी उचित कारण के, दूसरे के साथ से अलग हो जाता है।तो व्यथित पक्ष, जिला न्यायालय में याचिका द्वारा, वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिए आवेदन कर सकता है और न्यायालय, ऐसी याचिका में किए गए कथनों की सत्यता के बारे में संतुष्ट होने पर तथा यह कि आवेदन को स्वीकार न करने का कोई विधिक आधार नहीं है, तदनुसार वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना का आदेश दे सकता है।

धारा 13: 

इस अधिनियम के प्रारंभ होने से पहले या बाद में हुआ कोई भी विवाह, पति या पत्नी द्वारा प्रस्तुत याचिका पर, तलाक की डिक्री द्वारा इस आधार पर भंग किया जा सकता है कि दूसरा पक्ष-

दूसरे धर्म में परिवर्तन के कारण वह हिंदू नहीं रह गया है; या

किसी धार्मिक व्यवस्था में प्रवेश करके संसार का त्याग कर दिया है; या

उन व्यक्तियों द्वारा सात वर्ष या उससे अधिक की अवधि तक जीवित रहने के बारे में नहीं सुना गया है। जिन्होंने स्वाभाविक रूप से इसके बारे में सुना होगा, यदि वह पक्ष जीवित होता।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 

  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 में लंबित भरण-पोषण और कार्यवाही के खर्चों के बारे में बताया गया है। यदि पति-पत्नी में से कोई भी मामला लंबित रहने के दौरान खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, तो हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 24 के तहत भरण-पोषण और अदालती खर्चों के रूप में राहत दी जा सकती है।
  • धारा 24 न्यायालय को यह अधिकार देती है कि वह पति या पत्नी में से किसी एक को, जो स्वतंत्र रूप से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, कार्यवाही की लागत के साथ-साथ अंतरिम भरण-पोषण का भुगतान करने का आदेश दे। इसे किसी भी अधिनियम प्रक्रिया में लागू किया जा सकता है, जिसमें 1955 अधिनियम की धारा 11 के अनुसार शून्यता का आदेश प्राप्त करना भी शामिल है।

निष्कर्ष ( Conclusion )

हिंदू मैरिज एक्ट 1955 ( Hindu Marriage Act 1955 ) का उद्देश्य हिंदू विवाह को नियंत्रित करने वाले कानून को सहिताबद्ध करना है। हिंदू विवाह अधिनियम ( Hindu Marriage Act ) हिंदुओं को व्यवस्थित विवाह बंधन में बंधने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है। यह विवाह को अर्थ देता है, वर और वधू दोनों के लिए सहवास के अधिकार, तथा उनके परिवार और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है। ताकि उन्हें अपने माता-पिता से जुड़ी समस्याओं का सामना न करना पड़े।

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